बलबीर पुंज : अक्सर चर्चा में रहने वाले लव जिहाद के मुद्दे को स्वयंभू बुद्धिजीवी वर्ग खारिज करता आया है। इसी सिलसिले में 14 जनवरी को नई दिल्ली में एक कार्यक्रम के दौरान वामपंथी इतिहासकार रोमिला थापर ने लव जिहाद को काल्पनिक बताते हुए इसे दक्षिणपंथी संगठनों के दिमाग की उपज बताने का प्रयास किया। क्या वास्तव में लव जिहाद जैसा कुछ है? या फिर यह इस्लामोफोबिया से जनित एक मिथक है? इसकी पड़ताल से वास्तविकता सामने आ ही जाएगी। नि:संदेह, किसी सभ्य समाज में प्रेम संबंधों के बीच धर्म या मजहब की दीवार आड़े नहीं आनी चाहिए, किंतु यदि प्रेम जैसे निश्छल संबंध में कोई अपनी मजहबी पहचान छिपाकर छल से किसी को झूठे प्रेमपाश में फंसाकर मतांतरण का दबाव डाले तो फिर क्या उसे लव जिहाद जैसी संज्ञा देना अनुचित होगा। वैसे भी यह शब्द पहली बार भाजपा के प्रभाव वाले क्षेत्रों के बजाय दक्षिण के उन इलाकों से सुनने में आया था, जहां भाजपा का प्रभाव अत्यंत सीमित या न के बराबर है।

अब जरा बीते दिनों के कुछ उदाहरणों पर गौर कीजिए। लखनऊ में चांद मोहम्मद ने सुशील मौर्य की फर्जी पहचान के साथ एक हिंदू युवती से शादी रचाई और फिर उसे तमाम तरह से प्रताड़ित किया, जिसमें उसे गोमांस तक खिलाने का आरोप है। प्रयागराज में ही मोहम्मद आलम ने अनुज प्रताप सिंह उर्फ सोनू बनकर न केवल एक 21 वर्षीय नर्सिंग छात्रा के साथ संबंध बनाए, बल्कि अपने भाइयों के साथ भी ऐसा करने का दबाव डाला। बिहार के वाल्मीकिनगर में एक हिंदू युवती ने आरोप लगाया कि जाकिर ने पहचान बदलकर उसके साथ प्रेम का प्रपंच रचा और उसका यौन शोषण किया। ऐसी सूची अंतहीन होती जाएगी। तमाम मामले कानूनन दर्ज हैं।

एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार गत वर्ष देश में 150 से अधिक लव जिहाद के मामले आए। इनमें से 99 में मुस्लिम युवकों ने अपनी मजहबी पहचान छिपाकर अधिकांश हिंदू युवतियों को अपने प्रेमजाल में फंसाया। इनमें छह ने तो अपने वैवाहिक होने की जानकारी तक छिपाई। वहीं 43 मामलों में हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों को तोड़ने से लेकर गोमांस खिलाने और अपने मित्रों या सगे-संबंधियों से दुष्कर्म तक करवाने या फिर अश्लील वीडियो को सार्वजनिक करने की धमकी देने का आरोप था। इनमें सात पीड़िताएं अनुसूचित जाति-जनजाति समाज से हैं।

भारत में अंतर-मजहबी प्रेम विवाह न तो नया है और न ही कोई अपराध, किंतु ऐसा क्यों है कि अब सामने आ रहे तमाम मामलों में लड़का ही मुसलमान और लड़की हिंदू, सिख या ईसाई होती है? वर्ष 2012 में केरल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ओमन चांडी ने विधानसभा में बताया कि 2009-12 के बीच 2,687 गैर-मुस्लिम महिलाएं (2,195 हिंदू और 492 ईसाई) इस्लाम में मतांतरित हुईं, जिनमें विवाह ही मूल कारण रहा। स्पष्ट है कि ऐसे मामलों में प्रेम के बजाय इस्लाम के विस्तार का मजहबी भाव अधिक होता है। शायद इसी कारण ‘लव-जिहाद’ जैसी शब्दावली का जन्म हुआ। इसमें मजहबी ‘सवाब’ पाने हेतु उस ‘तकैया’ का अनुसरण किया जाता है, जिसमें छल-कपट वाजिब है। इसलिए भारत में जितने भी ‘लव-जिहाद’ के मामले आते है, उनमें अधिकांश मुस्लिम अपनी इस्लामी पहचान छिपाने हेतु बिना किसी ‘कुफ्र’ बोध के माथे पर तिलक, हाथ में कलावा और हिंदू नामों आदि का उपयोग करते हैं।

‘डेमोग्राफिक इस्लामाइजेशन: नान-मुस्लिम्स इन मुस्लिम कंट्री’ नामक एक दस्तावेज में फ्रांसीसी विद्वान फिलिप फर्ग्यूस ने बताया कि कैसे प्रेम और विवाह के माध्यम से इस्लामीकरण किया जा रहा है और अब प्रेम-विवाह इस्लामीकरण की सतत प्रक्रिया में वही भूमिका निभा रहा है, जो काम अतीत में बलपूर्वक किया जाता था। इस्लामी शोधार्थी हसाम मुनीर ने ‘हाउ इस्लाम स्प्रेड थ्रूआउट द वर्ल्ड’ शीर्षक से तैयार शोधपत्र में उल्लेख किया है, ‘इस्लाम के प्रसार में मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच अंतर-मजहबी विवाह ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। इस प्रक्रिया से इस्लाम में मतांतरित होने वाले लोगों में सर्वाधिक महिलाएं थीं।’

इस्लामी इतिहासकार क्रिश्चियन सी. साहनर ने ‘क्रिश्चियन मार्टयर्स अंडर इस्लाम: रिलीजियस वायलेंस एंड मेकिंग आफ द मुस्लिम वर्ल्ड’ में लिखा है, ‘इस्लाम शयन कक्ष के माध्यम से ईसाई दुनिया में फैला।’ ऐसे तमाम उद्धरणों से स्पष्ट है कि गैर-मुस्लिम महिलाओं से मुस्लिम पुरुषों का विवाह विशुद्ध मजहबी एजेंडा है और यह केवल भारत तक सीमित नहीं। ब्रिटेन में लेबर पार्टी की नेता सारा चैंपियन ब्रिटिश संसद में मुस्लिम युवकों (अधिकांश पाकिस्तानियों) द्वारा ईसाई और सिख युवतियों के संगठित यौन शोषण का मुद्दा उठा चुकी हैं।

स्मरण रहे कि देश में ‘लव-जिहाद’ के खिलाफ यदि भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या अन्य हिंदूवादी संगठन मुखर हैं तो अन्य वर्गों के साथ ही कुछ कम्युनिस्ट-कांग्रेसी नेता भी इस मुद्दे पर आवाज उठा चुके हैं। जुलाई 2010 में केरल के तत्कालीन मुख्यमंत्री और वरिष्ठ वामपंथी नेता वीएस अच्युतानंदन राज्य में योजनाबद्ध ढंगे से मुस्लिम युवकों द्वारा विवाह के माध्यम से हिंदू-ईसाई युवतियों के मतांतरण का उल्लेख कर चुके हैं। केरल उच्च न्यायालय भी समय-समय पर इस संबंध में सुरक्षा एजेंसियों को जांच के निर्देश दे चुका है। यही नहीं, ‘लव-जिहाद’ के खिलाफ केरल के ईसाई संगठनों ने वर्ष 2009 में सबसे पहले आवाज बुलंद की थी।

ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर अधिकांश अंतर-मजहबी प्रेम संबंधों या विवाहों में पुरुष मुसलमान और महिला गैर-मुस्लिम क्यों होती है? ऐसा इसलिए, क्योंकि इस्लाम से बाहर उनकी शादी वर्जित है। यह मजहबी पाबंदी मुस्लिम समाज का अकाट्य हिस्सा आज भी है। अमेरिकी शोध संस्था ‘प्यू’ के अनुसार, मुस्लिम परिवारों में पुत्रों द्वारा किसी गैर-मुस्लिम से विवाह की स्वीकार्यता काफी सघन है, लेकिन वे अपनी पुत्रियों का अंतर-मजहबी विवाह या तो बहुत कम पसंद करते हैं या इसकी सख्त मनाही है। भारत में भी स्थिति इससे अलग नहीं है। क्या यह मजहबी निषेधाज्ञा किसी भी सूरत में आधुनिक या उदार कही जा सकती है? क्या कोई समाज इस तरह की मजहब प्रेरित धोखेबाजी को प्रेम की संज्ञा देकर सभ्य होने का दावा कर सकता है?

(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)